सृष्टि के प्रत्येक जड़ वस्तु व चेतन सत्ता का अपना-अपना मूल स्वभाव अथवा गुण होता है जिसे हम साधारण भाषा में उसका धर्म कहते है,जिसके आधार पर उस वस्तु या व्यक्ति का अस्तित्व निर्भर करता है। जैसे,अग्नि का गुण है उष्णता, जल का गुण है शीतलता, मिट्टी का गुण है पोषक तत्व प्रदान करना। अब यदि इनमें से कोई भी अपने मूल गुण को ही छोड़ दें,तो या उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा, या फिर उस वस्तु की महिमा में गिरावट आ जाएगी। यह तथ्य जितना सत्य अचेतन वस्तुओं के लिये है उतना ही महत्त्वपूर्ण यह चेतन व्यक्तियों के लिये भी है। क्योंकि,अचेतन वस्तुओ की ही तरह मनुष्यप्राणी के भी अपने गुण, कर्म, स्वभाव और संस्कार है, जिन गुणों के कारण ही उसे ‘मनुष्य’ की संज्ञा दी जाती है। तो यदि वह उन गुणों को ही खो दे अथवा दूसरे शब्दों में यदि वह अपना ‘मनुष्यत्व’ ही खो दे तो उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि मनुष्य का ‘मनुष्यत्व’ ही उसका वास्तविक ‘स्वधर्म’ है।
हमारे पौराणिक शास्त्रों में बताएं गए ज्ञान के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि ‘आत्मा’ और ‘शरीर’ के समन्वय का नाम ही ‘मनुष्य’ है।अतः मनुष्य के कुछ धर्म आत्मा से सम्बन्धित और कुछ शरीर से। शरीर का धर्म है शुद्ध अन्न, जल व वायु ग्रहण करके और उससे शारीरिक शक्ति अर्जित करके शारीरिक शुद्धता कायम रखते हुए आत्मा के निर्देशों का ठीक रीति से पालन करते हुए कर्म करना।और आत्मा का मूल धर्म है ‘ज्ञान’ अर्थात अपने निज स्वरूप का ज्ञान तथा सृष्टि के रचयिता सर्वशक्तिमान परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान। आत्मा अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति,प्रेम आनन्द व शान्ति के गुणों द्वारा करती है। अत: इन्ही गुणों में सदैव स्थिर रहकर शरीर द्वारा कर्म कराना ही प्रत्येक मनुष्यात्मा का सच्चा धर्म है जिसे ‘मानव धर्म’ कहते हैं। आज समस्त संसारमे जितने भी धर्म बने हैं, वास्तवमे वह मनुष्य समुदाय का सामाजिक व सांस्कृतिक विभाजन है। और इस विभाजन का वास्तव में हमारे मूल गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं है अपितु यह हमारी वैयक्तिक और सामाजिक गिरावट का सबसे बड़ा कारण हैं, जिसके फलस्वरूप आज सारा मानवसमाज ही दु:खी और अशान्त है।
आज धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्यायें और इन विषयों पर लम्बे-चौड़े व्याख्यान खूब होते रहते हैं । परन्तु इन सबका मनुष्य जीवन पर कुछ प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा है। इसका मुख्य कारण हैं कि आज सृष्टि से आत्मा, परमात्मा और सृष्टि चक्र का सच्चा ज्ञान जिसे ‘आध्यात्मिक ज्ञान’ कहते हैं,वह प्राय: लोप हो गया है।अब यह निज ज्ञान तो केवल एक ज्ञान के सागर परमात्मा ही के पास है, जो स्वयं प्रत्येक कल्प में एक बार कलियुग के अन्त और सतयुग की आदि के संगम पर इस पृथ्वी पर अवतरित होते है और अपना और अपनी रचना का सच्चा ज्ञान समस्त मानवजाती के उद्धार अर्थ सभीको सुनाते हैं। इसी निज ज्ञान को सुनकर और धारण करके मनुष्य अपने खोये हुये मनुष्यत्व को प्राप्त कर सकता है और सही अर्थ में धार्मिक बन सकता है अर्थात् अपने मूल स्वभाव को पुन: प्राप्त कर सकता हैं एवं अपना खोया हुआ सुख, शान्ति व पवित्रता का स्वराज्य पुनः प्राप्त कर सकता हैं। अतः मनुष्य को चहिये की वह धर्म की सच्ची परिभाषा को जानकर सच्ची धार्मिक जीवन जिए।
(ई-मेलःnikunjji@gmail.com--- www.brahmakumaris.org)
(राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी आंतराष्ट्रीय वक्ता, आध्यात्मिक शिक्षा विश्लेषक-लेखक और अनुभवी राजयोगा मेडिटेशन शिक्षक के रुप में प्रसिद्ध हैं।)



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Sat, Mar 12 , 2022, 10:17 AM