History of Gorkhaland movement: दार्जिलिंग की शांत वादियों में एक बार फिर राजनीतिक हलचल तेज

Fri, Apr 25 , 2025, 04:21 PM

Source : Uni India

दार्जिलिंग . पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग की शांत वादियों (peaceful valleys of Darjeeling) में एक बार फिर राजनीतिक हलचल तेज हो रही है। भारतीय गोरखा समुदाय (Indian Gorkha community) की वर्षों पुरानी मांग-गोरखालैंड—को एक बार फिर से कानूनी और संवैधानिक मार्ग से जीवित करने की कोशिश की जा रही है। पश्चिम बंगाल विधानसभा के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) विधायक और गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (GNLF) के महासचिव नीरज तमांग जिम्बा ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को ज्ञापन सौंपकर दार्जिलिंग और इसके आसपास के क्षेत्रों के संवैधानिक डिमर्जर की मांग करते हुए इस बहस को फिर से राष्ट्रीय मंच पर ला दिया है।

गोरखालैंड आंदोलन का इतिहास (History of Gorkhaland movement): एक शताब्दी से भी अधिक पुरानी मांग: वर्ष 1907 में दार्जिलिंग के लोगों ने पहली बार ब्रिटिश भारत सरकार से अलग प्रशासनिक पहचान की माँग रखी थी। उससे पहले 1986-1988 में जीएनएलएफ के नेतृत्व में एक भीषण आंदोलन हुआ। इस दौरान 1,200 से अधिक लोगों की जान गई। दार्जिलिंग और आसपास के इलाकों में जबरदस्त अशांति फैली। वर्ष 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) का गठन हुआ-परंतु यह भी स्थायी समाधान नहीं था। वर्ष 2007 में एक बार फिर से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के नेतृत्व में आंदोलन उभरा, जब पृथक गोरखालैंड की मांग ने जोर पकड़ा।

वर्ष 2017 में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा बंगाली भाषा को अनिवार्य करने के प्रयास के बाद दार्जिलिंग में भारी विरोध हुआ। यह आंदोलन हिंसक हुआ और करीब 100 दिन तक दार्जिलिंग बंद रहा। कई जानें गईं और दार्जिलिंग एक युद्धक्षेत्र में बदल गया। इन आंदोलनों की जड़ में गहरी अस्मिता और प्रशासनिक उपेक्षा की भावना रही है। दार्जिलिंग भारत के ‘चिकन नेक’ यानी सिलीगुड़ी कॉरिडोर के अत्यंत समीप स्थित है। यह भूभाग मात्र 22 किमी चौड़ा है, जो भारत के मुख्य भूभाग को पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ता है।

चीन, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल के बीच सटे इस संवेदनशील भूभाग पर किसी भी तरह की अस्थिरता भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है।
दार्जिलिंग का ऐतिहासिक रूप से सिक्किम के साथ गहरा संबंध रहा है। 19वीं सदी की शुरुआत तक दार्जिलिंग सिक्किम का ही हिस्सा था। बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे डीड ऑफ ग्रांट (1835) के तहत अपने अधिकार में लिया था।

ऐसे में यदि दार्जिलिंग को पुनः सिक्किम के साथ मिलाया जाए, तो सांस्कृतिक, भौगोलिक और प्रशासनिक दृष्टि से एक स्वाभाविक पुनःस्थापन संभव हो सकता है।
वहीं गोरखालैंड की मांग दार्जिलिंग, कलिम्पोंग, कर्सियांग और डुवार्स क्षेत्र को लेकर रही है। अलग राज्य से गोरखा समुदाय की सांस्कृतिक पहचान को संवैधानिक मान्यता मिलेगी। प्रशासनिक विकास तेज होगा, क्योंकि छोटे राज्य का शासन अधिक केंद्रीकृत और उत्तरदायी होगा। केंद्र शासित प्रदेश बनाना: रणनीतिक दृष्टि से यह भारत सरकार के सीधे नियंत्रण में आ जाएगा। सीमावर्ती संवेदनशील क्षेत्र की सुरक्षा और विकास में तेजी आएगी। नगरीय और ग्रामीण विकास में बेहतर समन्वय होगा। ‘चिकन नेक’ जैसे संवेदनशील क्षेत्र की रक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी।

आज दार्जिलिंग एक संवेदनशील मोड़ पर खड़ा है। यहाँ के गोरखा लोग न तो बंगाली पहचान को अपनाते हैं, न ही उनकी प्रशासनिक आकांक्षाएं पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पूरी हुई हैं। नीरज तमांग जिम्बा जैसे जनप्रतिनिधियों द्वारा शांतिपूर्ण, संवैधानिक तरीके से आंदोलन को आगे बढ़ाना यह दर्शाता है कि यह मांग अब परिपक्व हो चुकी है और इसे अब नकारना संभव नहीं होगा। केंद्र सरकार के पास विकल्प : या तो दार्जिलिंग को फिर से सिक्किम के साथ मिलाया जाए, या उसे एक अलग गोरखालैंड राज्य के रूप में गठित किया जाए, या फिर इसे एक रणनीतिक केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाए।

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