राष्ट्रवाद की परंपरा को बखूबी निभा रहे योगी आदित्यनाथ

Thu, Aug 08 , 2024, 03:38 AM

Source : Uni India

लखनऊ।  स्वतंत्रता के लिए लड़ाई में भरपूर योगदान और स्वतंत्रता के मूल्यों का संरक्षण गोरक्षपीठ की विरासत का अभिन्न हिस्सा है। पीठ से विरासत में मिली इस परंपरा को वर्तमान पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ (Peethadheeshwar Yogi Adityanath) प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में बखूबी निभाने के साथ और आगे बढ़ा रहे हैं। शहीदों से जुड़े हर स्मारक का सुंदरीकरण आदि इसका प्रमाण है। इसी क्रम में योगी सरकार (Yogi government) ने काकोरी ट्रेन एक्शन (Kakori Train Action) के शताब्दी वर्ष के लिए कार्यक्रमों की श्रृंखला तैयार की है। शताब्दी महोत्सव (centenary festival) पर पूरे प्रदेश भर में अलग-अलग तिथियों पर कार्यक्रम होंगे। 9 अगस्त से इन आयोजनों की शुरुआत होगी। वहीं 13 से 15 अगस्त के बीच 'हर घर तिरंगा' अभियान आयोजित किया जाएगा, जिसमें घर-घर तिरंगा फहराया जाएगा।

गोरखपुर स्थित नाथपंथ की इस पीठ के व्यापक सामाजिक सरोकार रहे हैं। यही वजह है कि करीब एक शताब्दी से देश की राजनीति और समाज का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं रहा जिस पर अपने समय में पीठ की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही हो। राम मंदिर आंदोलन में गोरक्षपीठ की भूमिका से हर कोई वाकिफ है। यह देश की राजनीति और समाज पर असर डालने वाला आजादी के बाद का सबसे बड़े आंदोलन था। रही देश की आजादी की लड़ाई की बात तो इसमें भी पीठ की विशेषकर इस पीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दादा गुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
जिस दौरान जंगे आजादी चरम पर थी, उस समय योगी आदित्यनाथ के दादा गुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ ही गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर थे। वह चित्तौड़ मेवाड़ ठिकाना ककरहवां में पैदा हुए थे। पर, 5 साल की उम्र में गोरखपुर आए तो यहीं के होकर रह गए। यकीनन देश भक्ति का जोश, जज्बा और जुनून उनको मेवाड़ की उसी माटी से विरासत में मिली थी जहां के महाराणा प्रताप ने अपने समय के सबसे ताकतवर मुगल सम्राट के आगे तमाम दुश्वारियों के बावजूद घुटने नहीं टेके।
इसी विरासत का असर था कि किशोरावस्था आते आते वह महात्मा गांधी से प्रभावित होकर आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने जंगे आजादी के लिए जारी क्रांतिकारी आंदोलन और गांधीजी के नेतृत्व में जारी शांतिपूर्ण सत्याग्रह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक ओर जहां उन्होंने समकालीन क्रांतिकारियों को संरक्षण, आर्थिक मदद और अस्त्र-शस्त्र मुहैया कराया, वहीं गांधीजी के आह्वान वाले असहयोग आंदोलन के लिए स्कूल का परित्याग कर दिया।
चौरीचौरा जनक्रांति (चार फरवरी 1922) के करीब साल भर पहले आठ फरवरी 1921 को जब गांधीजी का पहली बार गोरखपुर आगमन हुआ था, दिग्विजयनाथ रेलवे स्टेशन पर उनके स्वागत और सभा स्थल पर व्यवस्था के लिए अपनी टोली (स्वयंसेवक दल) के साथ मौजूद थे। नाम तो उनका चौरीचौरा जनक्रांति में भी आया था, पर वह उसमे ससम्मान बरी हो गये। देश के अन्य नेताओं की तरह चौरीचौरा जनक्रांति के बाद गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन के सहसा वापस लेने के फैसले से वह भी असहमत थे। बाद के दिनों में मुस्लिम लीग को तुष्ट करने की नीति से उनका कांग्रेस और गांधीजी से मोह भंग होता गया। इसके बाद उन्होंने वीर सावरकर और भाई परमानंद के नेतृत्व में गठित अखिल भारतीय हिंदू महासभा की सदस्यता ग्रहण कर ली। जीवन पर्यंत वह इसी में रहे। उनके बारे में कभी सावरकर ने कहा था, ‘यदि महंत दिग्विजयनाथ की तरह अन्य धर्माचार्य भी देश, जाति और धर्म की सेवा में लग जाएं तो भारत पुनः जगतगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है।’
महंत दिग्विजयनाथ महाराणा प्रताप से कितने प्रभावित थे, इसका सबूत 1932 में उनके द्वारा स्थापित महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद है। इस परिषद का नाम महाराणा प्रताप रखने के पीछे यही मकसद था कि इसमें पढ़ने वाल विद्यार्थियों में भी देश के प्रति वही जज्बा, जुनून और संस्कार पनपे जो प्रताप में था। इसमें पढ़ने वाले बच्चे प्रताप से प्रेरणा लें। उनको अपना रोल माॅडल माने। उनके आदर्शों पर चलते हुए यह शिक्षा परिषद चार दर्जन से अधिक संस्थाओं के जरिये विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की अलख जगा रहा है।

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