घोसी उपचुनाव (Ghosi by-election) के नतीजों ने क्या पूर्वांचल में 2024 का मूड बता दिया है? आपका जवाब हां या ना कुछ भी हो सकता है, लेकिन विश्लेषण जो इशारा कर रहा है, वो क़ाबिल-ए-ग़ौर है. घोसी उपुचनाव का अंजाम बीजेपी के लिए ‘बड़ा संदेश’ है. दारा चौहान के लिए ‘अहम इशारा’ है. ओपी राजभर के लिए मंथन की घड़ी है. संजय निषाद (Sanjay Nishad) के लिए सोचने का दौर है और सपा के लिए पूरी ताक़त के साथ एकजुट बने रहने का वक़्त है.
राजनीतिक दल घोसी की हार-जीत के मायने अपने-अपने हिसाब से बयां कर रहे हैं, लेकिन असली वजह और विश्लेषण आपके सामने है. घोसी के नतीजों के बाद जिस तरह से इसे सिर्फ़ एक विधानसभा तक सीमित बताने की कोशिश हो रही है, उसकी असली तस्वीर कुछ और है.
पर्दे के पीछे बीजेपी के अंदर हर स्तर पर खलबली है. बातों-मुलाकातों में घोसी का जिक्र जरूर होता है. खबर ये भी है कि सिर्फ़ जिक्र ही नहीं हो रहा, बल्कि ‘कुछ जरूरी’ नीति-रणनीति भी बन रही है.
मऊ से लखनऊ तक ‘बड़े ऑपरेशन’ की सुगबुगाहट?
8 सितंबर 2023 की शाम को मऊ से लखनऊ तक बीजेपी में बेचैनी दिखी. नेताओं को घोसी में मिली बड़ी हार की ना तो उम्मीद थी और ना ही आशंका. इसीलिए तब से लेकर अब तक जवाब देना भारी पड़ रहा है. हर चौराहै, हर नुक्कड़, हर सियासी गलियारे में घोसी ( Ghosi) हारने की वजहें तलाशी जा रही हैं. कार्यकर्ताओं से जवाब मांगा जा रहा है, जबकि हाईकमान मंथन के दौर से गुजर रहा है.
घोसी हार के बाद सबसे बड़ी खबर ये है कि बीजेपी में मऊ से लखनऊ तक ‘बड़े ऑपरेशन’ की सुगबुगागट है. कार्यकर्ता और स्थानीय नेता इस आशंका में हैं कि हाईकमान कोई बड़ा फैसला ले सकता है. इसमें जिले से लेकर प्रदेश स्तर तक चौंकाने वाला निर्णय शामिल है. यानी बहुत जल्द घोसी की हार का असर मऊ से लेकर लखनऊ तक देखने को मिल सकता है. बीजेपी का एक धड़ा घोसी में दारा चौहान की दावेदारी को कोस रहा है, तो वहीं दूसरा धड़ा इसे अंदरूनी लड़ाई का नतीजा बता रहा है.
बड़े नेता कार्यकर्ता तक सीमित रह गए!
घोसी विधानसभा उपचुनाव नतीजों के बाद सबसे चौंकाने वाली खबरें सामने आ रही हैं. स्थानीय कार्यकर्ता और लोगों ने बताया कि बड़े नेताओं का कैम्प करना गलत दांव साबित हुआ. प्रचार और नतीजों का विश्लेषण करने के दौरान ये बात मालूम हुई कि लखनऊ से बड़े नेताओं के आने के बाद माहौल थोड़ा बनने लगा था. दारा चौहान की बेरुखी से जन्मी नाराजगी का असर कम होने लगा. बड़े नेताओं के दौरे बढ़ते तो शायद ज्यादा फायदा हो पाता. लेकिन, जिले से लेकर मंडल और बूथ तक पार्टी कार्यकर्ता उनकी आवभगत में लगे रहे. बड़े नेताओं के दौरे और घर-घर प्रचार से ज़्यादा उन्हें चाय-नाश्ता करवाने में व्यस्त रहे. इसका नतीजा ये हुआ कि जातिगत समीकरण के हिसाब से जो नेता, मंत्री वोटबैंक को फायदा पहुंचा सकते थे, वो नाराज लोगों तक पहुंच ही नहीं पाए.
दारा से नहीं बैठी ट्यूनिंग, नेता मायूस; कार्यकर्ता खुश?
दारा सिंह चौहान की करारी हार के बाद घोसी से लेकर मऊ ज़िले तक कार्यकर्ता खुश बताए जा रहे हैं. पार्टी सूत्रों और स्थानीय स्तर पर लोगों ने बताया कि दारा के ख़िलाफ सिर्फ़ जनता नहीं बल्कि बीजेपी कार्यकर्ताओं में भी नाराजगी थी. क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले ही साल हुए विधानसभा चुनाव में घोसी में उनके ख़िलाफ लड़ाई लड़ी गई. उसके बाद उसी सीट पर हुए उपचुनाव में पार्टी कार्यकर्ताओं की दारा के साथ ट्यूनिंग नहीं बैठ पाई.
दारा चौहान के बारे में पार्टी कार्यकर्ताओं का कहना है कि वो प्रोफाइल वाली राजनीति ज्यादा करते हैं. यानी लखनऊ में बैठकर विधायकी और मंत्रालय चलाते हैं. जमीनी स्तर पर लोगों से जुड़ाव कम ही रहता है. सिर्फ चुनिंदा कार्यक्रमों में शामिल होते हैं. इसकी वजह से स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ उनकी सियासी जुगलबंदी नहीं बन सकी. इसके अलावा जिस नेता के ख़िलाफ साल भर पहले घर-घर जाकर चुनावी लड़ी, अब अचानक उसी के लिए वोट कैसे मांगें. इसी राजनीतिक दुविधा ने घोसी में दारा की राह को और मुश्किल बना दिया.
दारा का हश्र देख अब ‘मूल’ पर लौटने की रणनीति!
घोसी विधानसभा सीट (Ghosi assembly seat) पर हुए चुनाव और उपचुनाव के नतीजे सबसे बड़ा संदेश दारा और BJP को दे रहे हैं. दारा चौहान को पिछड़ों के नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता है. 2022 में वही दारा बीजेपी से सपा में आ जाते हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में घोसी से दारा हुंकार भरते हैं. सपा के टिकट पर उन्हें 1,08, 430 वोट मिलते हैं. जबकि बीजेपी के विजय राजभर को 86,214 वोट मिले. दारा चौहान ये चुनाव करीब 22 हजार वोटों से जीत जाते हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों के लिए ये आकलन का विषय हो सकता है कि आखिर घोसी विधानसभा सीट पर चुनाव और उपचुनाव के बीच क्या खेल हो गया. लेकिन, जमीनी सच्चाई लोकतांत्रिक तरीके से आपके सामने है. उपचुनाव में सपा के सुधाकर सिंह को 1,24,427 वोट मिले, जबकि बीजेपी के टिकट पर दारा चौहान को 81,668 वोट हासिल हुए. जो दारा सपा में रहकर 22 हजार वोट से जीत गए, वही जब बीजेपी के टिकट पर लड़े, तो 42 हज़ार वोटों से हार गए. घोसी उपचुनाव का नतीजा बता रहा है कि यहां दारा चौहान और बीजेपी दोनों की हार हुई है. बीजेपी दारा के खिलाफ़ जनता की नाराजगी को नहीं समझ सकी. जबकि दारा चौहान ख़ुद को पूर्वांचल में चौहान समेत पिछड़ों और अति पिछड़ों का मसीहा मानने की भूल कर बैठे. अब एक ही झटके में दारा और बीजेपी दोनों की आंखें खुल गई हैं. दारा से नाराजगी का खामियाज़ा बीजेपी को भुगतना पड़ा.
घोसी का नतीजा दलबदलुओं के लिए भी संकट!
बीजेपी के लिए मऊ ज़िले की घोसी सीट इस उपचुनाव से पहले ‘केक वॉक’ हुआ करती थी. यानी बेहद आसानी से जीत जाने वाला दांव. लेकिन, 2023 के उपचुनाव में ये बात साबित हो गई कि लोकतंत्र में वोटर मालिक है, तो वोट सबसे बड़ा हथियार. इसीलिए बीजेपी को 2022 के मुक़ाबले करीब 5 हजार वोट कम मिले. जिस सीट पर 2017 में घोसी की जनता ने बीजेपी के फागू चौहान को चुना. फिर 2019 में उनके राज्यपाल बनने के बाद उपचुनाव में बीजेपी के विजय राजभर को अपना नेता मान लिया. उसी घोसी विधानसभा सीट पर बीजेपी पहली बार उपचुनाव हार गई. घोसी की हार के बाद मऊ समेत पूरे प्रदेश में ये संदेश गया है कि ‘बाहरी’ लोगों पर दांव लगाने की भूल ना तो कार्यकर्ता स्वीकार कर सकेंगे और ना ही जनता. वो भी तब जब संगठन से लेकर सरकार तक हर स्तर पर पूर्वांचल से बीजेपी की बड़ी भागीदारी है. दारा सिंह चौहान मूल रूप से बसपा के हैं. बीजेपी के लिए वो दल के रूप में बाहरी हैं और घोसी वालों के लिए नेता के तौर पर. इसलिए बीजेपी अब ऐसी रणनीति पर काम करने की तैयारी में है, जिससे घोसी का असर 2024 पर ना पड़े. इसके लिए बीजेपी के मूल कार्यकर्ता पर भरोसा और बड़े नेताओं के बीच ‘बड़े ऑपरेशन’ पर मंथन हो रहा है.



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Tue, Sep 12 , 2023, 07:06 AM